Thursday, November 15, 2007

Area of work

Western Rajasthan is the chosen area of work as it is:
  • Backward in terms of development.
  • A desert having scarcity of resources.
  • Close to the international border with Pakistan.
  • Devoid of government intervention.
  • Lacking initiative for self-development.
  • Marked by social problems like the rigid caste system, illiteracy, female infanticide, violence against women, dowry etc.

6 comments:

Unknown said...

vikalp santhan barmer rajasthan se yogesh ji k kary bhar me es sansthan ko kafi safaltaen mile hai.sath he sath kusum dave ji ka bhi atulniy yogdaan raha.aaj ke raftaar bhari jindgi me kise ko samaj sudhar ki kise padi hai,lakin vikalp sansthan andhere me ek roshni ka kaam kar raha hai.nari utthan k liye logon ko jagruk karna,logo ko sahi galat ki rah dekhana or unhe samaj ko new disha me badalne k liye yogdaan k liye krtavynisth karna tatha siksha ki or unmukh karne k leye ye sansthan karykram chalata hai prsansa yogy hai.hum sabhi ko yahan se sekh lete hue es new roshni ko or badhana caheye.main comment's likh raha hu filhal es sansthan se talluk nahi rakhta lakin bhawisya me vikalp se judna or un k karyon me sahyog karne ki dili aasha hai.yogesh ji hum duaa karengy k aap hamesha esi tarah sansthan ki ujjawal jyoti jalae rakhe,hamare samaj me kai sudhar karne baaki hai. yogesh ji or kusum dave ji ko hamara charan sparsh.

Unknown said...

नारी

डॉ. महेंद्र भटनागर :=
चिर-वंचित, दीन, दुखी बंदिनि!
तुम कूद पड़ीं समरांगण में,
भर कर सौगंध जवानी की
उतरीं जग-व्यापी क्रंदन में,
युग के तम में दृष्टि तुम्हारी
चमकी जलते अंगारों-सी,
काँपा विश्व, जगा नवयुग, हृत-
पीड़ित जन-जन के जीवन में!



अब तक केवल बाल बिखेरे
कीचड़ और धुएँ की संगिनि
बन, आँखों में आँसू भर कर
काटे घोर विपद के हैं दिन,
सदा उपेक्षित, ठोकर-स्पर्शित
पशु-सा समझा तुमको जग ने,
आज भभक कर सविता-सी तुम
निकली हो बन कर अभिशापिन!



बलिदानों की आहुति से तुम
भीषण हड़कम्प मचा दोगी,
संघर्ष तुम्हारा नहीं रुकेगा
त्रिभुवन को आज हिला दोगी,
देना होगा मूल्य तुम्हारा
पिछले जीवन का ऋण भारी,
वरना यह महल नये युग का
मिट्टी में आज मिला दोगी!



समता का, आज़ादी का नव-
इतिहास बनाने को आयीं,
शोषण की रखी चिता पर तुम
तो आग लगाने को आयीं,
है साथी जग का नव-यौवन,
बदलो सब प्राचीन व्यवस्था,
वर्ग-भेद के बंधन सारे
तुम आज मिटाने को आयीं!
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Unknown said...

खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो
आने दो रे आने दो, उन्हें इस जीवन में आने दो

जाने किस-किस प्रतिभा को तुम
गर्भपात मे मार रहे हो
जिनका कोई दोष नहीं, तुम
उन पर धर तलवार रहे हो
बंद करो कुकृत्य - पाप यह,
नयी सृष्टि रच जाने दो
आने दो रे आने दो, उन्हें इस जीवन में आने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो

जिस दहेज-दानव के डर से
करते हो ये जुल्मो-सितम
क्यों नहीं उसी दुष्ट-दानव को
कर देते तुम जड़ से खतम
भ्रूणहत्या का पाप हटे, अब ऐसा जाल बिछाने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो

बेटा आया, खुशियां आईं
सोहर-मांगर छम-छम-छम
बेटी आयी, जैसे आया
कोई मातम का मौसम
मन के इस संकीर्ण भाव को, रे मानव मिट जाने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो

चौखट से सरहद तक नारी
फिर भी अबला हाय बेचारी?
मर्दों के इस पूर्वाग्रह मे
नारी जीत-जीत के हारी
बंद करो खाना हक उनका, ऋनका हक उन्हें पाने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो

चीरहरण का तांडव अब भी
चुप बैठे हैं पांडव अब भी
नारी अब भी दहशत में है
खेल रहे हैं कौरव अब भी
हे केशव! नारी को ही अब चंडी बनकर आने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो

मरे हुए इक रावण को
हर साल जलाते हैं हम लोग
जिन्दा रावण-कंसों से तो
आंख चुराते हैं हम लोग
खून हुआ है अपना पानी, उसमें आग लगाने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो

नारी शक्ति, नारी भक्ति
नारी सृष्टि, नारी दृष्टि
आंगन की तुलसी है नारी
पूजा की कलसी है नारी
नेह-प्यार, श्रद्धा है नारी
बेटी, पत्नी, मां है नारी
नारी के इस विविध रूप को आंगन में खिल जाने दो
खिलने दो खुशबू पहचानो, कलियों को मुसकाने दो
***********************************

Unknown said...

नारी अबला,
ना री, पगली.

नारी भोग्या,
ना री, पगली.

नारी का अपमान हुआ,
ना री, पगली ना

उसका तन बदनाम हुआ
ना री, बहना ना.

औरत पर अत्याचार,
क्या केवल पुरुष करे है,
कर ना बहना सोच विचार.
क्या कोई मर्द मिला तुझको
जो अपनी मां को रौंदे है?
क्या कोई मर्द भला अपनी
बहना के प्यार को कौंदे है.
बस पीडा पतनी पाती क्यो.
क्या पति ही इसका जिम्मेदार
ना री पगली ना

मां को पीडा पतनी से,
बहन को दुख भी बीवी का
बीवी सास की दुशमन है
क्या दोशी पुरुष ही हो हर बार
ना री पगली ना.

सुनी सुनाई न तू बोल
सारे पुरुषों को ना कोस
कुछ इधर बुरे कुछ उधर बुरे,
हर बुरे का मुझको है अफसोस
औरत मर्द की दुशमनी हारी
क्या हार सका है कभी कोई प्यार
ना री पगली ना.

बीती बाते छोड दे प्यारी
दुनिया आओ सजाएं न्यारी
साथ साथ पैट्रोल पंप पर
काम करे हैं अब नर नारी
क्यों भला औरत है अबला
क्यो उसको कहते बेचारी
आज पुरुष भी बदल रहा है
बद्लो सोच अपनी पुरानी
बोलो फिर पुरोषो को कोसोगी
ना री बहना ना.
**********************************
औरत की दुश्मन ही क्यों बनी है औरत
कुलवंत हैपी

दुख-सुख, उतार-चढाव देखे सीता बन
हर तरह की जिन्दगी जी है औरत ने

कभी सुनीता तो कभी कल्पना बन
जमीं से आसमां की सैर की है औरत ने

बन झांसी की रानी और महताब
लडी है मैदान-ए-जंग औरत ने

कभी बन मदर टैरेसा भरे
औरों की जिन्दगी में रंग औरत ने

बेटी, बहू, बहन, सास, मां बन
ना-जाने कितने रिश्ते निभाए औरत ने

परिवार की खुशी के लिए
आपने अरमानों के गले दबाए औरत ने

जिन्दगी के बहुत से फलसफे
दुनिया वालों पढ़ी है औरत

फिर भी ना जाने क्यों
चुप, उदास, लाचार खड़ी है औरत

समझ नहीं आता फिर
औरत की दुश्मन ही क्यों बनी है औरत
**********************************

Unknown said...

वह औरत आकाश और पृथ्वी के बीच

कब से कपड़े पछीट रही है

पछीट रही है शताब्दियों से

धूप के तार पर सुखा रही है

वह औरत

आकाश और धूप और हवा से वंचित घुप्प गुफा में

कितना आटा गूँध रही है?

गूँध रही है मनों सेर आटा

असंख्य रोटियाँ सूरज की पीठ पर पका रही है

एक औरत दिशाओं के सूप में खेतों को फटक रही है

एक औरत वक्त की नदी में दोपहर के पत्थर से

शताब्दियाँ हो गई, एड़ी घिस रही है

एक औरत अनन्त पृथ्वी को अपने स्तनों में समेटे

दूध के झरने बहा रही है

एक औरत अपने सिर पर घास का गट्ठर रखे कब से

धरती को नापती ही जा रही है

एक औरत अंधेरे में खर्राटे भरते हुए आदमी के पास

निर्वसन जागती शताब्दियों से सोई है

एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है

उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं

उसके पाँव जाने कब से सबसे अपना पता पूछ रहे हैं।
**********************************

Unknown said...

मेरे पूरक ??

चीर हरण मेरा होता आया
जुआ जब जब तुमने था खेला
वनवास काँटा मैने
धोबी को जब वचन तुमने दिया
घर दोनों ने बसाया
मालिक तुम कहलाये

करवाचौथ का व्रत मैने रखा
लम्बी आयु तुमने पायी
नौ महीने कोख मे मैने रखा
वंश बढ़ा तुम्हारा
भोगा और सहा सिर्फ़ मैने
फिर किस अधिकार से
मेरे पूरक तुम कहलाये ??
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हे नारी !


प्रेम हो तुम, स्नेह हो
वात्सल्य हो, दुलार हो
मीठी सी झिड़की हो, प्यार हो,
भावनाओं में लिपटी फटकार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

प्रसव वेदना सहती ममता हो
विरह वेदना सहती ब्याहता हो,
सरस्वती, लक्ष्मी भी तुम हो
तुम ही काली का अवतार हो,
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

कैकयी हो, कौशल्या हो,
मंथरा भी तुम, तुम ही अहिल्या हो.
वृक्षों से लिपटी बेल हो,
कहीं सख़्त, सघन देवदार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

सती तुम ही, सावित्री तुम हो
जीवन लिखने वाली कवियत्री हो,
दोहा, छंद , अलंकार तुम ही
तुम ही मंगल सुविचार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

नदी हो तुम कलकल बहती,
धरती हो तुम हरियाली देती,
जल भी तुम हो, हल भी तुम हो,
तुम जीवन का आधार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

जीवन का पर्याय हो तुम
आंगन, कुटी, छबाय हो तुम
यत्र तुम ही, तत्र तुम ही,
तुम ही सर्वत्र हो
ईश्वर की पवित्र पुकार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

गेंहू तुम हो, धानी तुम ही
तुम मीठा सा पानी हो,
जब भी सुनते अच्छी लगती
ऐसी एक कहानी हो,
कविता में शब्दों सी गिरती
एक अविरल धार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

जन्म दिया तुम ही ने सबको
तुम ही ने तो पाला है
पहला सबक लेते हैं जिससे
वो तेरी ही पाठशाला है
एक पंक्ति में,
तुम जीवन का आधार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।

-पंकज रामेन्दू मानव


नारी शक्ति


हे विश्व की सँचालिनी
कोमल पर शक्तिशालिनी
प्रणाम तुम्हें नारी शक्ति
क्या अद्भुत है तेरी भक्ति
तू सहनशील और सदविचार
चुपचाप ही सह जाती प्रहार
तुझसे ही तो जग है निर्मित
परहित के लिए तुम हो अर्पित
तुमने कितने ही किए त्याग
दी अपने अरमानों को आग
जिन्दा रही ब दूसरो के लिए
नि:स्वार्थ ही उपकार किए
खुशियाँ बाँटी बेटी बनकर
माँ-बाप हुए धन्य जनकर
अर्धांगिनी बनकर किए त्याग
समझा उसको भी अच्छा भाग
माँ बन काली रातें काटी
बच्चे को चिपका कर छाती
जीवन भर करती रही सघर्ष
चाहा बस इक प्यारा सा घर
नहीं पता चला बीता जीवन
हर बार ही मारा अपना मन
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ऐसी ही होती है नारी
वही दे सकती जिन्दगी सारी
उस नारी के नाम इक नारी दिवस
खुश हो जाती है इसी में बस
नही उसका दिया जाता कोई पल
नारी तुम हो दुनिया का बल
तुझमें ही है अद्भुत हिम्मत
तेरी शक्ति के आगे झुका मस्तक।
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